मेरे हिस्से का उजाला हरजीवन दाफड़ा , अनुवाद : पारुल सिंह नजर की सीमा के पार उदित हो गया है उजाला कब से ! आकाश को छूते बर्बर समूहों के काले घने बादल और चारों तरफ फैली हुई अंधकारग्रस्त मनोवृत्तियाँ मुझे रोक रही हैं सीमा पार जाने से कुछ कहूँ तो जीभ काट […]
Continue Reading... No Comments.मेरा हाथ करसनदास लुहार , अनुवाद : उषा ज. मकवाणा मेरे हाथ में मशाल नहीं पर मेरा हाथ स्वयं मशाल है जंगलों को देखता हूँ हाथ में तीर-कमान लिए नगर की और आते हुए… मेरे आदिम रक्त से ऊठ रही हैं आग की लपटें मकाई के खेतों की चंचल सतह पर सूरज की […]
Continue Reading... No Comments.बाड़ बिना का खेत लक्ष्मण परमार , अनुवाद : पारुल सिंह भाई, मेरा देश मतलब बाड़ बिना का खेत उसके चारों तरफ घास बनकर ऊगते हैं पक्षों के वचन अब तो रिश्वत और सिफारिशों की झंखाड़ फूट पड़ी है भ्रष्टाचार की बालियों पर सिफारिश के दाने पक गये हैं बिजूका चूपचाप देखा करता […]
Continue Reading... No Comments.गुत्थी फ़ारूक शाह अनुवाद : उषा ज. मकवाणा न कोई मनमेल न कोई एकदूसरे के तल तक पहुँचने हृदय से धँसते तिरोहित होकर एकता की भूमि पर उछलने की बात हम तो रहे वहीं के वहीं बिना अंकुरित हुए बीज जैसे मलिनता के कवच से मढ़े हुए किसी भी तरह […]
Continue Reading... No Comments.हिंस्रता मधुकान्त कल्पित , अनुवाद : पारुल सिंह अभी कल ही मैंने काटे होगे नाखून इसलिए यह हाथ लग रहे हैं कितने सुहाने और सभ्यता से परिपूर्ण ! परंतु अचानक आज क्या पता क्रुद्ध और क्षुधित हो उठा पूरा वातावरण एक पल में तो गली मेरी बन गई उन्माद की लपकती ज्वाला मुलायम […]
Continue Reading... No Comments.अर्थ हरीश मंगलम , अनुवाद : सत्यपाल यादव हे कविता देवी ! तुझे नचाना है मुझे हकीकत के परदे पर हमने कभी भी इन्द्रधनुषी सात रंगों का सुख नहीं भोगा उसी आकाश में एक के बाद एक झरते तारों को देखकर इन्द्रराज में से अपने घर मुझे पैदल जाना है देख, लिपाई की नक्काशी में […]
Continue Reading... No Comments.खेत अरविन्द वेगडा , अनुवाद : सत्यपाल यादव हमें भी उगाया जाता हैं खेत में लेकिन हम उग नहीं सकते इसलिए सितम के चाबुक उठाकर वे लोग खेत जोतने खींचवा रहे हैं हल हल से पसीने के पानी में भूख के खाद के साथ अरमानों की बाई करते हैं. युगों से […]
Continue Reading... No Comments.लगता है कि जीवण ठाकोर , अनुवाद : पारुल सिंह मुझे लगता है कि इस जंगल में आज तो जटा को सहलाऊँ और दहाड़ लगाऊँ कभी तो लगता है कि इन ऊँची ऊँची पहाड़ियों और गहरी गहरी खाइयों को एक छलांग में अश्व जैसी छलांग भरकर कूद जाऊँ केसरिया साफा सिर पर बाँधकर पूर्वजों […]
Continue Reading... No Comments.